..... तो क्या उप्र चुनाव में मोदी भी लेंगे राम का सहारा ?
 

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

..... तो क्या उप्र चुनाव में मोदी भी लेंगे राम का सहारा ?
 
-स्वामी अग्निवेश/ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दशहरा पर लखनऊ में जाकर जय श्रीराम के नारे लगाने पर उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर फिर से राम मंदिर निर्माण मुद्दे को सुलगाने की बात चल पड़ी है। अयोध्या में  रामायण संग्रहालय के लिए 20 एकड़ जमीन प्रस्तावित की गई है। केन्द्रीय पर्यटन मंत्री महेश शर्मा का सक्रिय होना मामले को बल दे रहा है। भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने भी अपने मुखपत्र सामना में मोदी से राम मंदिर निर्माण की पैरवी की है। विश्व हिन्दू परिषद व तमाम संतों ने पहले ही अयोध्या में राम मंदिर निर्माण क लिए पत्थर तराशने का काम शुरू कर रखा है। मामले को सुलगता देख सपा सरकार भी रामलीला के लिए थीम पार्क बनाने की बात करने लगी है। बसपा प्रमुख मायावती ने भाजपा और सपा पर धर्म के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगा रहीं हैं। इन सबके बीच मोदी के सबका साथ सबका विकास के नारे का क्या होगा ? वैसे भी मंदिर निर्माण का मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। तो यह माना जाये कि हिन्दू वोटबैंक के लिए ये सब हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जो नरेंद्र मोदी किसी भी मामले में किसी को कोई श्रेय नहीं लेने दे रहे हैं। वह उत्तर प्रदेश की जीत का श्रेय राम को क्यों लेने देंगे ? वैसे भी आम चुनाव से लेकर किसी भी चुनाव में उन्होंने किसी विवादित मुद्दे को नहीं छेड़ा। राम मंदिर निर्माण के हीरो रहे कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, विनय कटियार, उमा भारती के होते हुए बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने का निर्णय लिया गया है। आज के हालात में लगता नहीं कि मोदी राम मंदिर निर्माण के मुद्दे पर चुनाव लड़कर अपना कद घटाएंगे। मोदी सरकार के कार्यकाल पर नजर डालें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पार्टी को नए क्लेवर में ले आए हैं। मंदिर निर्माण आंदोलन से जुड़े बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी साइड लाइन हैं। कहना गलत न होगा कि तरह-तरह के आरोपों को झेलने वाले नरेन्द्र मोदी सरकार और पार्टी को काफी हद तक अटल बिहारी वाजपेयी की नीतियों पर चला रहे हैं। राम मंदिर निर्माण, धारा 370, समान नागरिकता जैसे मुद्दे समय-समय पर उठ तो रहे हैं पर मोदी सीधे रूप से इनसे बच रहे हैं। राम मंदिर निर्माण आंदोलन की वजह से सवर्णों की पार्टी मानी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी में अगड़ी लाइन के नेताओं को पीछे कर पिछड़ी जातियों के काफी नेताओं का आगे लाया जा चुका है।  जाटों के वर्चस्व वाले हरियाणा में जहां मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया गया वहीं उत्तर प्रदेश जैसे सियासी प्रदेश में पिछड़ा वर्ग से केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। मध्य प्रदेश में पहले से ही शिवराज सिंह चौहान पिछड़ा वर्ग से मुख़्यमंत्री  हैं। खुद प्रधानमंत्री भी पिछड़ा वर्ग से हैं। ऐसे में मोदी मंदिर निर्माण आंदोलन की आड़ में लाल कृष्ण आडवाणी, प्रवीण भाई तोगड़िया और मोहन भागवत जैसे कट्टरपंथी नेताओं को उत्तर प्रदेश चुनाव का श्रेय नहीं लेने देंगे। भले ही दशहरा के दिन लखनऊ में मोदी के लगाए गए जय श्री राम के नारे को लेकर हल्ला मचाया जा रहा हो पर कन्या भ्रूण हत्या को रावण बताकर उसके दहन पर दिए गए उनके भाषण की सराहना भी बहुत हो रही है।
हिन्दुत्व के मुद्दे पर जब गौरक्षकों ने उत्पात मचाया तो मोदी ने बहुत सख्त लहजे में नकली गौरक्षकों से सावधान रहने की बात कही। गत दिनों प्रयाग महाकुंभ में जब संतों ने उन्हें धर्मसंसद कार्यक्रम में बुलाया तो उन्होंने साफ मना कर दिया। तमाम छटपटाने के बावजूद विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल जैसे कट्टर हिन्दुत्व की छवि वाले संगठनों को उन्होंने ज्यादा सक्रिय नहीं होने दिया। मोदी सरकार बनाने का श्रेय लेने वाले बाबा रामदेव को भी उन्होंने नहीं सटाया। महात्मा गांधी, डॉ. राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, बाबा भीम राव अंबेडकर जैसे विचारकों की जमकर तारीफ करने और स्वतंत्रता सेनानी व क्रांतिकारियों के सम्मान में विशेष कार्यक्रम आयोजित कराने वाले नरेंद्र मोदी राम मंदिर जैसा विवादित मुद्दा उठाकर किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहेंगे। हां उन पर राम मंदिर निर्माण का दबाव है इसका समाधान वह सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से ही कराना चाहेंगे। जिस तरह से उन्होंने ट्रिपल तलाक का मामला कोर्ट में ले जाकर मुस्लिम समाज की महिलाओं की सहानुभूति बटोरी है, ऐसी स्थिति में नहीं लग रहा है कि मंदिर जैसे मुद्दों को छेड़कर वह किसी पार्टी को मुस्लिमों के उकसावे की राजनीति करने देंगे। वैसे भी बलूचिस्तान और पीओके में जिस तरह से उनके कूटनीतिक प्रयास सफल हो रहे हैं। ऐसे में इस तरह के मुद्दों से वह मुस्लिम समुदाय को नहीं बिदकाएंगे। वैसे भी देश में महंगाई, भ्रष्टाचार, भुखमरी, भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा और बेरोजगारी जैसे मुद्दे अहम हैं। भुखमरी ने तो संस्थागत आतंकवाद का रूप ले लिया है।
उरी में सेना शिविर पर हुए आतंकी हमले के बाद सेना द्वारा किए गए सर्जिकल स्ट्राइक पर भले ही वोटबैंक की राजनीति हो रही हो पर मोदी की वाहवाही हो रही है। आतंकवाद के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जोर-शोर से उठाने पर पाकिस्तान के अलग-थलग पड़ जाने के बाद जिन मोदी की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभरकर कर आई हो वह चुनाव में घिसे-पिटे मंदिर मुद्दे को उठाकर कोई जोखिम नहीं मोल नहीं लेना चाहेंगे। जब श्रीलंका, अफगानिस्तान, भूटान, नेपाल, रूस, अमेरिका आतंकवाद के मुद्दे पर हमारे साथ खड़े हों। ऐसे में कोई घिसापिटा  मुददा छेड़कर मोदी अपना कद घटाने की भूल कभी नहीं करेंगे। हां इतना जरूर है कि 1991 की तरह ही इस बार भी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है।
बात राम मंदिर की चल रही है तो इसके इतिहास में भी जाना जरूरी है। भले ही कांग्रेस राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा को घेरती रही हो पर राम के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेकने से वह भी कहीं से पीछे नहीं रही है ।  यह तो मुद्दा ही कांग्रेस के समय का है। दरअसल 22 दिसंबर, 1949 की मध्यरात्रि में जब जन्मभूमि पर रामलला प्रकट होने की बात कही गई। उस समय देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तथा  उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पंडित गोविंद वल्लभ पंत थे। कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट ने मंदिर के द्वार पर ताले तो लगा दिए पर एक पुजारी को दिन में दो बार ढांचे के अंदर जाकर दैनिक पूजा और अन्य अनुष्ठान संपन्न करने की भी अनुमति दे दी गई । आज भले ही राम का नाम भाजपा से जोड़ा जाता हो पर कांग्रेस के कार्यकाल में ताला लगे दरवाजों के सामने स्थानीय श्रद्धालुओं और संतों द्वारा “श्रीराम जय राम जय जय राम” का अखंड संकीर्तन किया गया था।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दाऊ दयाल खन्ना ने मार्च 1983 में मुजफ्फरनगर में आयोजित एक हिन्दू सम्मेलन में अयोध्या, मथुरा और काशी के स्थलों को फिर से अपने अधिकार में लेने के लिए हिन्दू समाज का प्रखर आह्वान किया था।  उस समय दो बार देश के अंतरिम प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा भी मंच पर मौजूद थे।
अप्रैल, 1984 में विश्व हिन्दू परिषद् ने  नई दिल्ली के विज्ञान भवन में पहली धर्म संसद आयोजित कर राम जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाने के लिए जनजागरण यात्राएं करने का प्रस्ताव पारित कराया। अक्टूबर में जनजागरण के लिए बिहार सीतामढ़ी से दिल्ली तक राम-जानकी रथ यात्रा शुरू की तो कांग्रेस की हालत ख़राब हो गई। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के चलते एक साल के लिए यात्राएं रोक दी गईं। अक्टूबर 1985  में रथ यात्राएं फिर से शुरू हो गईं। इन रथ यात्राओं से हिन्दू समाज को भाजपा के पक्ष में जाता देख बोखलाए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अरुण गांधी से फैजाबाद दंडाधिकारी  के यहां ताले खुलवाने की याचिका डलवा दी। दंडाधिकारी ने भी उसी दिन 1 फरवरी, 1986 को श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के द्वार पर लगा ताला खोलने का आदेश दे दिया। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह थे।
इतना ही नहीं गुजरात के सुप्रसिद्ध मंदिर शिल्पकार चद्रकांत भाई सोमपुरा से प्रस्तावित मंदिर का रेखाचित्र तैयार कराया गया। चंद्रकांत के दादा पद्मश्री पी.ओ.सोमपुरा ने सोमनाथ मंदिर का प्रारूप भी बनाया था। जनवरी, 1989 में प्रयागराज में कुंभ मेले के अवसर पर त्रिवेणी के किनारे विश्व हिन्दू परिषद् ने धर्म संसद का आयोजन किया। इसमें देवरहा बाबा की उपस्थिति में तय किया गया कि देश के हर मंदिर- हर गांव में रामशिला पूजन कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। पहली शिला का पूजन बद्रीनाथ धाम में किया गया। देश और विदेश से ऐसी 2,75,000 रामशिलाएं अक्टूबर 1989 के अंत तक अयोध्या पहुंच गईं। इस कार्यक्रम में लगभग छह करोड़ लोगों ने भाग लिया। 9 नवम्बर, 1989 को बिहार के वंचित वर्ग के एक बंधु कामेश्वर चौपाल से शिलान्यास कराया गया। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। राम मंदिर आंदोलन में अशोक सिंघल, लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह, विनय कटियार, उमा भारती जैसे कट्टर पंथी नेताओं ने मुख्य रूप बढ़चढ़ भाग लिया था।
दो दिसंबर 1989 को वीपी सिंह की सरकार बनने पर लालकृष्ण आडवाणी उप प्रधानमंत्री बने। वीपी सिंह के मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने पर देश में भड़के छात्र आंदोलन को हवा देकर तू डाल-डाल मैं पात-पात पर की सोच रखने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ मंदिर से लेकर अयोध्या तक रथयात्रा शुरू कर दी। यात्रा के चलते होने वाले दंगों के चलते बिहार में घुसते ही तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। आडवाणी का गिरफ्तार करना था कि देश में राम मंदिर निर्माण के पक्ष में एक माहौल बन गया। इस बीच बड़े स्तर पर काफी कार सेवक और संघ कार्यकर्ता अयोध्या पहुंच चुके थे। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए उन्होंने हल्ला बोल दिया। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने मस्जिद की सुरक्षा में अद्धैसैनिक बल लगा रखा था। अद्धैसैनिक बल से हुई मुठभेड़ में कई कारसेवक मारे गए। माहौल का अपन पक्ष में होता देख भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया तथा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी। मंदिर निर्माण आंदोलन को भुनाकर भाजपा ने 1991 के चुनाव में 120 सीटें प्राप्त कीं तथा उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। कट्टर हिन्दुत्व का चेहरा कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया।
कल्याण सिंह के कार्यकाल में 6 दिसम्बर 1992 को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और इससे जुड़े संगठनों ने लखनऊ में एक रैली की, जिसमें हजारों भाजपा व विहिप कार्यकर्ता शामिल हुए। इन लोगों ने मस्जिद क्षेत्र पर हमला बोल दिया। यह रैली एक उन्मादी हमले के रूप में विकसित हुई और बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ इसका अंत हुआ। केंद्र में कांग्रेस की सरकार की थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव चाहते तो मस्जिद को गिराने से बचाया जा सकता था। कुछ दिन बाद देशभर में हुए हिन्दू एवं मुस्लिमों में हिंसा भड़क उठी, जिसमें 2000 से अधिक लोग मारे गए थे। 1996 में हिन्दू वोटबैंक के ध्रुर्वीकरण के चलते आम चुनावमें भाजपा 161 सीटें जीती थीं। अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई पर वह लोकसभा में बहुमत पाने में असफल रहे। एक वोट से सरकार गिर गई।
1996 में क्षेत्रीय दलों की बनी सरकार के कार्यकाल पूरा न करने की स्थिति में 1998 में फिर से चुनाव हुए। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) नामक गठबंधन के साथ चुनाव में उतरी, जिसमें पूर्ववर्ती सहायक जैसे समता पार्टी, शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना शामिल थे। इसके साथ आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) और बीजू जनता दल भी इसमें शामिल थे। यह अटल बिहारी वाजपेयी के उदारवादी छवि ही थी कि शिवसेना को छाड़कर भापजा की विचारधारा किसी भी दल से नहीं मिलती थी। तेलगु देशम पार्टी (तेदेपा) के बाहर से समर्थन के साथ राजग ने बहुमत प्राप्त किया और वाजपेयी पुन: प्रधानमंत्री बने। यह गठबंधन 1999 को उस समय टूट गया जब अन्ना द्रमुक नेता जयललिता ने समर्थन वापस ले लिया। 13 अक्टूबर 1999 को फिर से आम चुनाव हुए। भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को बिना अन्ना द्रमुक के पूर्ण समर्थन मिला और संसद में 303 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। भाजपा ने तब 183 सीटें जीती थी। वाजपेयी प्रधानमंत्री और लालकृष्ण आडवाणी उप प्रधानमंत्री बने। तब अटल बिहारी वाजपेयी के समान नागरिकता, धारा 370 और राम मंदिर निर्माण मुद्दे को दरकिनार करने पर उदारवादी छवि की बदौलत राजग ने पांच साल तक सरकार चलाई।
2014 में तमाम आलोचना के बावजूद आरएसएस की शह पर तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी के लिए नरेंद्र मोदी का नाम आगे बढ़ाया। 2014 का चुनाव मोदी ने विकास के मुद्दे पर लड़ा। चुनावी प्रचार में मोदी ने कोई विवादित मुद्दा नहीं छेड़ा। हां मुजफ्फरनगर के दंगों की वजह से हिन्दू वोटबैंक के ध्रुवीकरण की बातें जरूर बोली जाती रही हैं।

-स्वामी अग्निवेश